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आशीर्वाद जनता का मिलेगा या नहीं मिलेगा…

महिपाल साव

विधानसभा चुनाव हो, लोकसभा चुनाव हो, नगरीय निकाय चुनाव हो, उपचुनाव हो जिसे राजनीतिक दल प्रत्याशी बनाते हैं,वह चाहता है सब उसे जीत का आशीर्वाद दें।वह जहां जाता है हाथ जोड़े हुए जाता है।

जिस गली से गुजरता है,हाथ जोड़े हुए गुजरता है, जिस सड़क से गुजरता है हाथ जोड़े हुए गुजरता है। कहीं कोई बुजुर्ग दिख जाए तो पैर छूकर आशीर्वाद जरूर चाहता है।

कोई न दे वह तो आशीर्वाद चाहता है। वह तो आशीर्वाद ले लेता है। अखबारों में खबर छपती है या छपवाई जाती है कि चुनाव लड़ रहे प्रत्याशी ने आज कितने लोगों से आशीर्वाद लिया। भले ही खबर छापने वालों को मालूम न हो कि आशीर्वाद देने वालों ने उसको आशीर्वाद दिया या नहीं ।

इसे राजनीति में कहते हैं कि अपनी छवि बनाना।अपने को खबरों में बनाए रखना।जो भी खबर पढ़ेगा वह कहेगा कि देखो चुनाव लड़ने वाला प्रत्य़ाशी कितना विनम्र है, कितना संस्कारी है।जनता का प्रतिनिधि तो ऐसा ही होना चाहिए। राजनीति क्या है, छवि का ही तो खेल हैं। जिसकी छवि अच्छी मालूम होती है, वह अच्छा नेता मालूम होता है।

जो अच्छा नेता मालूम होता है उसे ही तो जनता चुनती है। चुनाव जीतने के लिए सबसे पहले अपनी छवि अच्छी बनानी पड़ती है। इसके लिए जरूरी है कि जो चुनाव लड़ रहा है, वह घर से निकले तो हाथ जोड़े हुए और दिन भी शहर में घूमे तो हाथ जोड़े हुए और लोगों से आशीर्वाद लेते हुए। चुनाव के दौरान प्रत्याशी की फोटो भी छपती है या छपवाई जाती है तो वह भी हाथ जोड़े हुए होती है।

कई बार मजा तब आता है जब दो बड़ी पार्टी के प्रत्याशी आमने सामने हो जाते हैं।एक उमर में छोटा होता है और एक उमर में बड़ा होता है तो एक आशीर्वाद लेने को सामने आ ही जाता है तो दूसरा आशीर्वाद देने काे मजबूर हो जाता है।

एक खुद को विनम्र और संस्कारी बताना चाहता है तो दूसरा खुद को महाविनम्र व महासंस्कारी बताना चाहता है।दोनों जानते हैं कि उनके आशीर्वाद देने व लेने से कुछ नहीं होने वाला है क्योंकि चुनाव में तो जीत उसी प्रत्याशी की होती है जिसे जनता आशीर्वाद देती है।

जनता भी दलों के प्रत्याशी को इतनी बार सुन चुकी, जान चुकी व वोट दे चुकी होती है, वह भी समझती है कि ये पांच साल मे एक बार वोट मांगने आते हैं, जीत जाने के बात शक्ल तक दिखाने तक नहीं आते हैं, इसलिए जनता बहुत सोच समझ कर वोट देती है।वह आजमाए हुए दल के प्रत्याशी को ही वोट देती है, जिसे वह जानती है, जो उसके लिए काम करता है। जो उसकी सेवा बरसों से कर रहा है, जो उसके सुख-दुख में उसके साथ खड़ा होता है।

पार्टी किसी बाहरी को चुनाव में उतार देगी तो जनता उसे जिता थोड़ी ने देगी।राजनीतिक दल भी बाहरी की परिभाषा अपनी सुविधा के हिसाब से तय करते हैं। जनता को मालूम है कि जब भी कोई राजनीतिक दल किसी विधानसभा क्षेत्र में विधानसभा से बाहर के व्यक्ति को प्रत्याशी बनाता है तो वह बाहरी कहा जाता है। वह बाहरी माना जाता है। जनता बाहरी को नहीं चुनती है क्योंकि वह उसे जानती नहीं है।

जनता अपने आसपास के नगर के, विधानसभा के लोगों को प्रत्याशी रूप से पसंद करती है और चुनाव जिताती भी है। थोपे हुए प्रत्याशी को तो पार्टी के लोग भी पसंद नहीं करते हैं क्योंकि उनको मिलने वाला टिकट उसे दिया गया होता है,वह भी किसी नेता का खास होने के कारण, किसी परिवार का करीबी होने के कारण।पार्टी के लोग जानते हैं कि अगर यह यहां से जीत गया तो उनका राजनीतिक भविष्य तो चौपट हो जाएगा, इसलिए उसे हराने बहुत सारे लोग एकजुट भी हो जाते हैं जिनका राजनीतिक भविष्य उस विधानसभा से जुड़ा होता है।

विधानसभा का वह नेता कैसे नाराज नहीं होगा जिसके बार में दिल्ली में कहा गया कि उसके पास चुनाव लड़ने के लिए पैसा नहीं है, इसलिए वह चुनाव नहीं लड़ सकता।सुहाना सफर गीत गाने वाले नेता जब पार्टी की बैठक में नहीं आता है तो इसका मतलब क्या होता है, सब जानते है।

और भी कई नेता नाराज होंगे क्योंकि किसी को एक टिकट मिलता है तो स्वाभाविक है कि बहुत सारे नेता नाराज होते ही हैं और नाराज नेता पार्टी प्रत्याशी के साथ क्या करते हैं. यह तो छिपी हुई बात नही हैं। ताजा ताजा उदाहरण हरियाणा का चुनाव है। सीधा संदेश होता है कि आपने हमको टिकट नहीं दिया,हम आपको जीतने नहीं देंगे।

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